Jai Hind News
Indore
– प्रेरणा स्रोत थे धर्मराज
(स्मृति शेष के रूप में विशेष आलेख)
तकरीबन हर घर की रसोई में पहुँच बनाने वाले एमडीएच मसालों के निर्माता महाशय धर्मराज गुलाटी के नाम में ही एमडीएच समाया हुआ था और यही वजह रही कि उनका नाम व काम ही उनका ब्रांड बन गया। जी हाँ, हम यहाँ बात कर रहे हैं महाशया धर्मराज दी हट्टी की। जिन्होंने अपने जीवन के 98 वर्षो में अपनी लगन व कर्मठता से यह सिध्द किया कि कैसे इंसान तजबीर से अपनी तकदीर बदल सकता है। गुरुवार 3 दिसंबर को सुबह इस संसार से एमडीएच भले ही शरीर से चले गए लेकिन सभी के दिलों में एमडीएच मसालों के रूप में हमेशा विद्यमान रहेंगे।
पुरुषार्थ की अदभुत मिसाल थे
1923 में पाकिस्तान में जन्मे महाशय पिता चुन्नीलाल का मन पढ़ाई में रहा नहीं इसीलिये 5वीं क्लास तक ही पढ़ पाए। 18 वर्ष की आयु में शादी के बाद जिम्मेदारी का बोझ बढ़ता देख हार्डवेयर, लकड़ी, कपड़े, अनाज, साबुन आदि की फैक्ट्रियों में खूब मेहनत की लेकिन उनके नसीब में तो व्यापार ही समाया था। 1947 में बंटवारे के बाद भारत आकर रिफ्यूजी बनकर रहे। 650 रुपए में तांगा और घोड़ा खरीदा और तांगा चलाया लेकिन यह काम भी उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाया। 1948 में एक झोपड़ी में दिल्ली में ही मसाले का काम शुरू किया और खुद ही हल्दी, मिर्च मसाले कूटने लगे। 1953 में चांदनी चौक में एक छोटी दुकान खोली। जिसका नामकरण किया “महाशियां दी हड्डी सियालकोट वाले”।
यह नाम भी लोगों को अजीब लगा। लेकिन यही अजीब नाम उनके जीवन में अजीज और लजीज बना। इस अजीब नाम ने ही नाम और शोहरत दिलाई। कड़ी मेहनत, मधुर व्यवहार और उच्च गुणवत्ता व माता पिता के आशीर्वाद ने महाशय की तकदीर ही बदल डाली और फिर 1968 में मसाला कारखाना खोला जो अपने बेहतर व गुणवत्ता युक्त मसालों के कारण देश ही नहीं विदेशों में भी “एमडीएच” के नाम से ख्याति अर्जित करने लगा। इसके बाद मसाला कारवां का स्वाद घरों की रसोई में ऐसे घर कर गया कि 100 देशों से अधिक देशों में ये ब्रांड स्थापित हो गया। इस दौरान रुकावटें और मुश्किलें भी आई लेकिन, महाशय अपने लक्ष्य से डिगे नहीं। अपनी मेहनत, हिम्मत व लगन से अपने ब्राण्ड के ब्रांड एंबेसेडर बनें। अक्सर उनके द्वारा टीवी पर अपने ब्रांड के विज्ञापन में एम यानी मिर्च, डी यानी धनिया और एच यानी हल्दी बताया जाता था।
कभी भी उन्होने अपने नाम का उल्लेख अपने ब्रांड के साथ नहीं किया।उन्होंने भारत ही नहीं विदेशियों की संस्कृति, संस्कार और स्वाद की नब्ज़ पकड़कर गहराई से समझकर ही उच्च व श्रेष्ठ मसालों की रचना की जो उनकी विशेषता और खूबी रही। पैकिंग मसालों का श्रेय इन्हीं को जाता है। शायद यही वजह रही कि पिछले वर्ष ही इन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
परमार्थ में भी आगे
एक कुशल प्रबंधक के रूप में वे अपने जीवन के अन्तिम पलों में भी सक्रिय रहकर जिम्मेदारीपूर्वक अपने संस्थान को अपनी शैली से चलाते रहे । समाजसेवा व परमार्थ में भी वे अग्रणी थे। अपने माता – पिता की पुण्य स्मृति में उन्होंने गरीबों के लिए निशुल्क अस्पताल, स्कूल भी स्थापित किए। मजबूर और लाचारों की भलाई करने में भी हमेशा आगे रहे। ऐसे अदभुत व जिंदादिल इंसान को हम श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।
– निशिकांत मंडलोई
( लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और यह उनके निजी विचार हैं)